Wednesday 6 February 2013

चंद्रशेखर आजाद


ब्रिटिश सरकार जिसके आतंक से सबसे अधिक डरती थी, उस अमर शहीद का जन्म मध्यप्रदेश के अलिराजपुर जिले के भाभरा गाँव में हुआ था। मातृभूमी की आजादी के लिये अपना सर्वस्य न्यौछावर करने वाले प्रसिद्ध क्रान्तिकारी चंद्रशेखर आजाद 15 वर्ष की अल्पआयु में गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन से जुङ गये थे। जलियावाला बाग कांड के नरसंहार की वजह से अंग्रेजों के प्रति उनमें रौष पहले से ही था। शुरुवाती दौर में ही वे जन-जन में आजाद के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे। 
चंद्रशेखर, आजद नाम से कैसे प्रख्यात हुए, इसका एक किस्सा है—
चंद्रशेखर, गाँधी जी के आवहान पर स्वदेशी की भावना से प्रभावित होकर झंडा हाँथ में लेकर जोशीले नारे के साथ छात्रों के जलूस में शामिल हो गये थे। पुलिस ने उन्हे गिरफ्तार कर लिया और मजिस्ट्रेट के सामने हाजिर किया गया। मजिस्ट्रेट ने उनसे सवाल पूछना प्रारंभ किया-
नाम ? आजाद !
पिता का नाम ? स्वाधीन
मजिस्ट्रेट को लगा कि लङका जिद्दी है। उन्होने अगला सवाल किया  और तुम्हारा घर ?
आजाद भी उसी अंदाज में बोले- जेलखाना।
मजिस्ट्रेट के गुस्से  पारा चढ गया। उसने आजाद को 15 बेंतों की सजा सुनाई। जेल के बाहर खुले मैदान में आजाद, वंदेमातरम् और महात्मा गाँधी की जय के उद्घोष के साथ नंगी पीठ पर बेंतों की मार सह लिये और उफ तक न किये।
जेल से बाहर आने पर सर्वप्रथम डॉ. सम्पूर्णानंद ने उन्हे आजाद नाम से संबोधित किया था। तद्पश्चात चंद्रशेखर इसी नाम से लोकप्रिय हुए।

असहयोग आंदोलन के दौरान जब फरवरी 1922  में चौरि-चौरा की घटना के पश्चात् बिना किसे से पूछे गाँधी जी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी काँग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (एच० आर० ए०) का गठन किया। चन्द्रशेखर आज़ाद भी इस दल में शामिल हो गये।

झाँसी और ओरछा के बीच सतारा नदी के किनारे लगभग ढीमरपुर से आजाद अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देते थे। वे दिन में पं. हरिशंकर ब्रह्मचारी के नाम से ढीमरपुरा ग्राम में रामकथा सुनाते थे और जीवन यापन के संसाधनों की व्यवस्था करते थे।

चन्द्रशेखर आज़ाद हमेशा सत्य बोलते थे। एक बार की घटना है आजाद पुलिस से छिपकर जंगल में साधु के भेष में रह रहे थे तभी वहाँ एक दिन पुलिस आ गयी। पुलिस ने साधु वेश धारी आजाद से पूछा-"बाबा! आपने आजाद को देखा है क्यासाधु भेषधारी आजाद तपाक से बोले- "बच्चा आजाद को क्या देखना, हम तो हमेशा आजाद रहते‌ हैं, हम भी तो आजाद हैं।" पुलिस समझी बाबा सच बोल रहा है, वह शायद गलत जगह आ गयी है अत: हाँथ जोडकर माफी माँगी और वापस लौट गयी।

एक बा‍र आजाद कानपुर के मशहूर व्यवसायी सेठ प्यारेलाल के निवास पर एक समारोह में आये हुये थे। प्यारेलाल प्रखर देशभक्त थे और प्राय: क्रातिकारियों की आथि॑क मदद भी किया क‍रते थे। आजाद और सेठ जी बातें कर ही रहे थे तभी सूचना मिली कि पुलिस ने हवेली को घेर लिया है। प्यारेलाल घबरा गये फिर भी उन्होंने आजाद से कहा कि वे अपनी जान दे देंगे पर उनको कुछ नहीं होने देंगे। आजाद हँसते हुए बोले- "आप चिंन्ता न करें, मैं कानपुर के लोगों को मिठाई खिलाये बिना जाने वाला नहीं।" फिर वे सेठानी से बोले- "आओ भाभी जी! बाह‍र चलकर मिठाई बाँट आयें।" आजाद ने गमछा सिर पर बाँधा, मिठाई का टो़करा उठाया और सेठानी के साथ चल दिये। दोनों मिठाई बाँटते हुए हवेली से बाहर आ गये। बाहर खडी पुलिस को भी मिठाई खिलायी। पुलिस की आँखों के सामने से आजाद मिठाई-वाला बनकर निकल गये और पुलिस सोच भी नही पायी कि जिसे पकडने आयी थी वह परिन्दा तो कब का उड चुका है। ऐसे थे आजाद!

27 फरवरी 1931 को अल्फ्रेड पार्क में आजाद बैठे हुए थे तभी पुलिस ने उन्हे घेर लिया दोनो तरफ से खूब गोलियाँ चली। एक अकेले आजाद ने पुलिस के छक्के छुङा दिये थे, किन्तु जब केवल एक गोली बची तो आजाद उसे अपनी कनपटी पर दाग दिये और जीतेजी अंग्रेजों के हाँथ नही आये।

उनके शहीद होने पर गाँधी जी ने कहा था-
चन्द्रशेखर की मृत्यु से मेँ आहत हूँ। ऐसे व्यक्ति युग में एक बार ही जन्म लेते हैं। फिर भी हमें अहिंसक रूप से ही विरोध क‍रना चाहिये।"

पं. जवाहर लाल नेहरू जी ने कहा-
"चन्द्रशेखर आजाद की शहादत से पूरे देश में आजादी के आन्दोलन का नये रूप में शंखनाद होगा। आजाद की शहादत को हिन्दुस्तान हमेशा याद रखेगा।"

पं. मदनमोहन मालवीय जी ने कहा--
"पण्डितजी की मृत्यु मेरी निजी क्षति है। मैं इससे कभी उबर नहीं सकता।"

मातृभूमि की आजादी के लिये क्रान्तिकारी शहीद आजाद का बलिदान भारत के जनमानस में एक गौरवमय उदाहरण है। आजाद एक सच्चे सिपाही थे। आजादी के ऐसे ही दिवानों की कुर्बानियों से भारत की स्वाधीनता का इतिहास लिखा गया है। 

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