Saturday 16 March 2013

सोशल वेबसाइट का मायाजाल




आज की आधुनिकता ने एवं विज्ञान के नित नये आविष्कारों ने दुनिया को हर किसी के करीब ला दिया है। मन की उङान से भी तेज संदेश वाहनों ने सभी को एक करने का प्रयास किया है। कहते हैं कि सिक्के के दो पहलु होते हैं। उसी तरह आज का अत्याधुनिक संचार माध्यम अनेक विसंगतियों को भी जन्म दे रहा है। सोशल नेटवर्किग साइट के बढ़ते चलन का बच्चों पर अच्छा और बुरा, दोनों तरह का असर पड़ता है। एक नए शोध के मुताबिक एक तरफ तो यह उनकी पढ़ाई के लिए घातक होता है, वहीं अंर्तमुखी बच्चों को यह सामाजिक मंच उपलब्ध कराता है। सच ही तो है- तस्वीर का हमेशा दो रूप होता है। आज हम तस्वीर के उस रुख को सामने लाने का प्रयास कर रहे हैं जो आज की चकाचौंध और इंस्टेंट फूड वाली दुनिया में लोगों के अस्तित्व को दीमक की तरह खा रही है।

आज सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों की दीवानगी पूरी तरह छाई हुई है। खासकर युवा पीढ़ी तो इससे जड़ तक जुड़ चुकी है और आगे और जुड़ने की कतार में खड़ी है। आज दुनिया भर में 2 अरब इंटरनेट के उपभोक्‍ता हैं, जिसमें से 80 करोड़ फेसबुक पर सक्रिय हैं। इसमें 30 करोड़ टि्वटर यूजर्स की संख्‍या है। अब यदि भारतीय इंटरनेट उपभोक्‍ता पर गौर करें तो इस समय भारत में 8.7 करोड़ इंटरनेट यूजर्स हैं। जिसमें से लगभग 3.7 करोड़ फेसबुक से जुड़े हैं और 1.2 करोड़ टि्वटर पर सक्रिय हैं।

यूनिवर्सिटी ऑफ सैलफोर्ड द्वारा किये गये सर्वे से परिणाम आया है कि सोशल साइटों का उपयोग करने वाले लोगों में आत्‍मविश्‍वास की कमी पायी जाती है। लगातार उपयोग करने से उनका व्‍यवहार बदल जाता है। अपने किसी पोस्ट या तस्वीर को अपने दोस्तों की तुलना में कम पसंद किए जाने से लोग हीनभावना का शिकार हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि उनका महत्व घट रहा है।

सोशल वेबसाइट से लोगों का सामाजिक दायरा तो बढ़ता है, लेकिन इसके साथ ही उनके आत्‍मविश्‍वास में भी कमी आती है। सोशल साइट्स का ज्‍यादा उपयोग करने से लोग डिप्रेशन में चले जाते है। इसका उपयोग ज्‍यादा करने से लोगों का व्‍यवहार बहुत तेज बदलता है। लोगों के मन में तुलनात्‍मक छवी घर कर जाती है।

एक चौथाई लोगों ने कहा कि अगर उनकी साइट पर किसी से लड़ाई हो जाती है तो वे अपने आपको असहज महसूस करते है। इस सर्वेक्षण में 298 लोगों को शामिल किया गया था। 51 प्रतिशत लोगों ने कहा कि साइट्स का उपयोग करने से उनका व्‍यवहार नकारात्‍मक रहता है, जिसका खामियाजा उन्हें अपने रिश्तों और कार्यस्थलों पर चुकाना पड़ रहा है। 55 प्रतिशत लोगों ने कहा कि अगर साइट्स का उपयोग नहीं कर पाते तो उनको दुख होता है। उनके मन में सोशल साइट्स को खोलने की एक उत्सुकता बनी रहती है। यानि उन्हें इन साइट्स की लत पड गई है।

ज्यादा पुरानी बात नही है; 4 फरवरी 2004 में हार्वड कॉलेज में कंप्युटर साइंस के छात्र मार्क जुकेरबर्ग ने फेसबुक की स्थापना की। मकसद था कॉलेज के बाकी छात्रों से जुङे रहना। सितंबर 2006 में जुकेरबर्ग ने इसका दरवाजा पूरी दुनिया के लिये खोल दिया। सोशल नेटवर्किंग की दुनिया का बेताज बादशाह फेसबुक सामाजिक मेल मिलाप के मकसद को छोङ आज एक ऐसा अखाङा बन गया है कि जहाँ ये शो किया जा रहा है कि किसको लोग कितना लाइक करते हैं और ये भावना धीरे-धीरे लोगों के अंदर निराश और कुंठा को जन्म दे रही है। आलम तो ये हो गया है कि अपनी लाइक्स बढाने के लिये लोग भगवान का सहारा लेने में भी संकोच नही करते। कुछ लोग सांई बाबा, तो कुछ शिव जी का वास्ता देकर धर्म के नाम पर अपना लाइक्स का बैंक बैलेन्स बढा रहे हैं। वो ये भूल गये हैं कि ईश्वर को अपनी प्रसिद्धी के लिये फेसबुक जैसी सोशल साइट्स की जरूरत नही है।

आज बढते हुए विकास में अफवाहें भी इन साइटों की वजह से इस तरह फैल जाती हैं कि अनेक मानवीय भावनाओं को आहत करती हैं। हाल ही में बाहर रह रहे असम के लोगों को आधुनिक साधनों के माध्यम से फैली अफवाहों से काफी दिक्कत का सामना करना पङा। आधुनिकता की इस अंधी दौङ में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम इन साइट्स से एक चलन की तरह जुङ जाते हैं, और परिणाम से बेपरवाह ऐसी टिपणीं कर देते है कि जिसका खामियाजा पूरे परिवार को या पूरे समुदाय को झेलना पङता है। हाल ही में महाराष्ट्र बंद पर की गई टिपणीं का खामियाजा दो लङकियों शाहीन और रेनु को भुगतना पङा।

आज के दौर में परंपरागत तरीके के बजाए इंटरनेट के माध्यम से डराने-धमकाने का दौर चल पड़ा है। यह तरीका ज्यादा खतरनाक है। एक शोध के मुताबिक 10 में से चार महिलाएं ऑनलाइन डेटिंग के बाद इलेक्ट्रानिक उत्पीड़न का शिकार हो चुकी हैं। ऑनलाइन पीडि़तों को अवसाद, भय, दु:स्वप्न, खाने पीने में मन नहीं लगना, नींद नहीं आना जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है।

आज सोशल नेटवर्किंग पर कुछ ऐसे आपत्तिजनक अंश पोस्ट कर दिये जाते हैं जिससे सामाजिक ढांचे को नुकसान पहुंच रहा है। सामाजिक स्वरूप को स्वस्थ रखने हेतु भारत जैसे कई देश इस तरह की साइटों के लिये एक निश्चित गाइड-लाइन बना रहे है। चीन में इंटरनेट सेंशरशिप के कानून काफी सख्‍त हैं। इसके अलावा, पाकिस्‍तान में 19 मई, 2010 को पैगंबर मोहम्‍मद पर कार्टून प्रतियोगिता के आयोजन संबंधी पेज को लेकर फेसबुक पर पाबंदी लगाई गई थी। 20 सितंबर, 2010 को लाहौर हाईकोर्ट ने ईश निंदा से जुड़ी सामग्री प्रकाशित करने वाली साइट्स पर रोक लगाने का निर्देश दिया था। सोशल नेटवर्किगं के बढते प्रकोप को रोकने के लिये अमेरिका में दो कानून स्‍टॉप ऑनलाइन पाइरेसी एक्‍ट (सोपा) और प्रोटेक्‍ट इंटेलेक्‍चुअल प्रॉपर्टी एक्‍ट (पीपा) पर बहस चल रही है।

आधुनिकता से परिपूर्ण सामाजिक मेल मिलाप के तरिकों से एक ऐसा वायरस पनप रहा है जिसकी तस्वीर अभी स्पष्ट नही है। किन्तु जब ये धुंधला चेहरा साफ होगा तब तक न जाने कितने लोग इसका शिकार हो चुके होंगे। आज यदि इन साइटों के जरिए युवाओं में सामाजिक संरचना का एक नया रूप आकार ले रहा है, तो इसमें साइबर वर्ल्‍ड की एक बड़ी भूमिका है। आने वाली पीढ़ी को लक्ष्‍य कर देखें तो यह संरचना किस आकार या किस रूप में होगी, यह कहना अभी तो मुश्किल है, लेकिन इसका स्‍वरूप काफी व्‍यापक होगा और यह युवाओं के जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ेगी।

मित्रों, आधुनिकता की अंधी दौङ में सोशल साइट्स का ये रूप किसी के लिये भी फायदेमंद नही है। यदि स्वस्थ मकसद अपनी राह भटक जाये तो परेशानियों का भूचाल आ जाता है। नदी किनारा छोङ दे तो बाढ जैसी तबाही आ जाती है। प्रकृति ने भी समाज की खुशहाली के लिये अपने संसाधनो को एक दायरे में बाँधा है। विकास के इस बढते हुए परिपेक्ष में इन सोशल साइट्स पर भी सीमाओं के दायरे होने चाहिये। इन साइट्स की वजह से बढ रहे अवसाद तथा कुंठा के वायरस को नष्ट करना आवश्यक हो गया है वरना ये आने वाली पीढी को खोखला बना देंगी।

2 comments:

  1. Social Website ka Mayajaal ko Sakaratmak avm Nakaratmak dono najriye se dekhana chahiye. Abhutpurv Jankari achchhi lagi. सोशल नेटवर्किग साइट के बढ़ते चलन का बच्चों पर अच्छा और बुरा, दोनों तरह का असर पड़ता है। एक नए शोध के मुताबिक एक तरफ तो यह उनकी पढ़ाई के लिए घातक होता है, वहीं अंर्तमुखी बच्चों को यह सामाजिक मंच उपलब्ध कराता है। सच ही तो है- तस्वीर का हमेशा दो रूप होता है। 10 में से चार महिलाएं ऑनलाइन डेटिंग के बाद इलेक्ट्रानिक उत्पीड़न का शिकार हो चुकी हैं। ऑनलाइन पीडि़तों को अवसाद, भय, दु:स्वप्न, खाने पीने में मन नहीं लगना, नींद नहीं आना जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है।
    विकास के इस बढते हुए परिपेक्ष में इन सोशल साइट्स पर भी सीमाओं के दायरे होने चाहिये। इन साइट्स की वजह से बढ रहे अवसाद तथा कुंठा के वायरस को नष्ट करना आवश्यक हो गया है वरना ये आने वाली पीढी को खोखला बना देंगी।
    So pl. take care, Brij Bhushan Gupta, New Delhi, 9810360393, 8287882178

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  2. Achchi baatein batayi hain aapne....Fb ka use/ misuse apne haatho mein hai...but as we know misuse karna aasaan hota hai...aur wahi ho raha hai...

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